Saturday, January 30, 2010





अखबार के पेशे का आत्मसम्मान बचाया
---साप्ताहिक अवकाश समाप्त होने के बाद अलीगढ़ से वापस आगरा जा रहा था। बस में चार पांच वृद्ध लोग मिल गए। सभी पवन कुमार वर्मा के ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास के सच्चे प्रतिनिधि थे।

पता नहीं किस बात से बात शुरू हुई और जल्द ही मेरे काम के बारे में पूछ बैठे। जवाब मिलने पर उन्हीं में से एक बोले...क्या.. अखबार में नौकरी करते हो। (उल्लेखनीय है कि वह सभी अपनी-अपनी पारिवारिक और संतानों द्वारा हासिल की गई उपलब्धियों के संबंध में आपस में स्पर्धा कर रहे थे)। मेरी अखबार की नौकरी के लिए ऐसी प्रतिक्रिया दी जैसे में कोई पिछड़ा हुआ काम करता हूं।

....खैर अगले 20 मिनट उन्होंने मुझे बताने में लगाए कि मीडिया बिक गया है। सब कुछ मैनेज होता है। कुछ नहीं कर सकता। तुम ही क्या कर लोगे। इस बीच मैने अपना पेशागत अत्मसम्मान बचाने का असफल प्रयास करते हुए कहा भी कि बाबूजी मैं तो केवल नौकरी करता हूं।..भ्रष्टाचार सभी क्षेत्रों में है।...भष्टाचार द्विपक्षीय क्रिया है आदि..आदि...लेकिन वह नहीं माने।

उन्होंने यह एक पक्षीय निष्कर्ष निकाल लिया..। उनके अनुसार अन्य सैंकड़ों युवाओं की तरह मैं भी उस आराम तलब युवा पीड़ी का हिस्सा हूं, जो संघर्ष से कोसों दूर हैं। क्योंकि संघर्ष तो सिर्फ उनकी संतानों ने किया है। जो कहीं पर प्रबंधक है। तो कोई कहीं न कहीं वैल सैटल्ड है। पुत्रियों को भी अच्छा दहेज देकर शानदार जगह भेजा गया। (यहां पर वह दहेज की रकम का उल्लेख करना भी नहीं भूले)

...सादाबाद तक आते आते मेरा धैर्य जवाब दे गया। मैनें उनकी उम्र और बालों की सफेदी को दरकिनार करते हुए प्रतिरोध करने का मन बनाया।...इस प्रकार की चेष्टा के साथ कि आस-पास के अन्य यात्री भी सुन लें। एक बुजुर्ग से कहा कि बाबूजी आप किस विभाग से रिटायर हैं--बोले मैं आगरा यूनिवर्सिटी में प्रवक्ता था। दूसरे से पूछा तो पता चला बैंक से रिटायर थे। एक बुजर्ग ने यह भी बताया कि वह स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं। 15 साल की उम्र में जेल चले गए थे।
....मैनें पहले बुजुर्ग से कहा जिस वक्त आप प्रवक्ता बने उस समय नेट जैसी परीक्षा नहीं थी। एमए करने के बाद सीधे पढ़ाने का अवसर मिलता था। बाद में नौकरी वरिष्ठों के आशीर्वाद पर बढ़ती रहती थी। सवाल के लहजे में पूछा.. आप नेट परीक्षा आज की तारीख में क्लीयर करके फिर से लेक्चरर बन सकेंगे। बैंक वालों से कहा आज क्लर्क के लिए भी बैंक भर्ती बोर्ड है। चपरासी तक के लिए स्पर्धा है। क्या आप आप बैंकिंग की भर्ती परीक्षा की रीजनिंग सॉल्ब करने का दावा करते हैं। .....स्वतंत्रता सेनानी जी से भी कहा...आप के समय में जिसने भी बोल दिया इन्कलाब जिन्दाबाद वह देशभक्त हो गया। आज में भ्रष्टाचार से लड़ते हुए मर भी जाऊं तो कोई मुझे देशभक्त नहीं बल्कि आप जैसे ही मुझे बेवकूफ कहेंगे। चौथे बुजुर्ग से भी कहा कि जिस पिता ने अपनी पुत्री के लिए रिश्ता देखते समय यह देखा हो कि लड़के की उपरी कमाई कितनी है। उसे भ्रष्टाचार पर बात करने का भी नैतिक अधिकार नहीं है।...

यही स्थित अन्य बुजुर्गों के समक्ष रखी।...कुछ निरुत्तर रहे तो एक दो ने इसे मेरी कोरी लफ्फाजी बताया। लेकिन इस बीच मैनें बस में अपना आत्म सम्मान बचाने लायक समर्थन जुटा लिया।...मैनें जोड़ा कि क्यों बुजुर्गों को अपने समय का संघर्ष सबसे जटिल, अपने समय की युवाअवस्था सबसे आदर्शमयी लगती है। जबकि आज स्पर्धा के चलते कदम-कदम पर अस्तित्व के लिए एक जंग लड़नी पड़ रही है।
...इस पूरे प्ररकरण में मुझे अभिव्यक्तिजन्य संतुष्टि मली। साथ ही कुछ सह यात्रियों की प्रशंसा। एक चीज और मिली। दो सीटों के बाद कस्बाई लुक लिए एक वृद्धा बैठी थी। कुछ सेकेंडों के मौन के बीच उसने कहा..सही कह रहयौ है लल्लू। मैनें इसे अपने दृष्टिकोण को उचित ठहराने का सबसे मजबूत आधार माना।

दीपक शर्मा-पत्रकार
098370-17406

1 comment:

pankaj mishra said...

bahoot achha hai deepak ji, aapko saadhubaad. plz visit my blog www.udbhavna.blogspot.com