Tuesday, December 22, 2009







दिल्ली के दिल का दर्द

कॉमनवेल्थ गेम आने वाले हैं। सब तरफ शोर है। युद्ध स्तर पर तैयारियां चल रही हैं। राष्ट्रीय राजधानी में बहुत गहमा-गहमी है। चमकाने के नाम पर दीवारों का पलास्टर उखाड़ा जा रहा है। सौंदर्य के नाम पर वह लोग हटाए जा रहे हैं जो फटेहाल हालत में रहते हैं। जब विदेशी मेहमान आएं तो उन्हें घर की बैठक में तख्त पर बिछी हुई फटी दरी दिखाई न दे इसिलए उस पर साफ चादर डाली जा रही है। -----इसके विपरीत कनॉट प्लेस पर जनसुविधाओं की क्या हालत है इसके लिए मैं आपको एक छोटी सी दिल्ली यात्रा का किस्सा बताना चाहूंगा। किसी काम से दिल्ली जाना हुआ। जल्दी सुबह आस-पास के शहरों से दिल्ली जाने वाले लोगों की एक प्रमुख समस्या ठीक से फ्रैश न होने की होती है। तसल्ली इस बात की होती है कि दिल्ली में जनसुविधाओं की हालत बहुत अच्छी है। यह खुश फहमी दूर हो गई। इस बार दिल्ली में कनॉट प्लेस के आस-पास जो जनसुविधा केन्द्र थे वह सीधे एनडीएमसी के नियंत्रण में आ गए थे। उनकी हालत किसी घटिया सार्वजनिक शौचालय से बदतर हो गई थी। इस्तेमाल करने की गरज से मैं वहां गया तो पानी भी नहीं था। भयंकर गंदगी के मारे खड़े होना भी मुश्किल। संचालक ने नाम पर एक बूढ़ अजीब सा आदमी बोला पानी बाहर से ले लो। रेहड़ी वाला वहीं खड़ा था। कीमत पूछने पर वोला एक गिलास पानी के हिसाब से बाल्टी में जितना पानी आए पैसा दे देना। मैंने हिसाब लगाया मेरे शहर अलीगढ़ पहुंचने में जितना किराया लगता उससे दोगुनी कीमत थी। इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए तलाश जारी रखी। बराखम्बा रोड पर एक प्रसाधन केंद्र ठीक ठाक अवस्था में मिला। उसके बाद ही राहत की सांस ली। वहां के व्यक्ति ने बताया कि पहले यह व्यवस्था निजी ठेकेदार के हाथ में थी। तब रखरखाव भी बेहतरीन होता था। अब एनडीएमसी ने निःशुल्क व्यवस्था कर दी है। तब से बदहाली है। सवाल उठता है। देश की राजधानी के हृदय स्थल पर जनसुविधाओं की यह हालत , वह भी ऐसे समय जब चारों ओर खेलों के महआयोजन की तैयारियां की जा रही हैं। देखकर अच्छा नहीं लगा। उम्मीद करता हूं जब अगली बार दिल्ली जाऊंगा तब यह सब देखने को न मिले।

दीपक शर्मा

Monday, October 12, 2009





अलीगढ़ का ट्रैफिक सिग्नल

....परिवर्तन हमेशा आसान नहीं होता। जिसके पास में अधिकार होते हैं वह अपनी इच्छा शक्ति के बल पर परिवर्तन का अगुवा बन सकता है। ऐसा ही कर दिखाया है अलीगढ़ के एसएसपी असीम अऱुण ने। शहर की लाइलाज बन चुकी यातायात व्यवस्था को काफी हद तक पटरी पर लाने का श्रेय उन्हें दिया जा सकता है।
...लेकिन इस परिवर्तन को पवन के वर्मा का ग्रेट इंडियन मिडल क्लास किस तरह देखता है, इसका एक नजारा मैं आपको बताना चाहूंगा।..

आगरा से एक दिन की छुट्टी लेकर मैं अलीगढ़ अपने घर गया था। माल गोदाम तिरहा (वह स्थान जहां पर दिन में जाम लगना अनिवार्य स्थिति मानी जाती है।)बिल्कुल नोएडा के किसी चौराहे की तरह दिखाई दिया। इलैक्ट्रानिक ट्रैफिक सिग्नल बेहतरीन तरीके से काम कर कर रहे थे। मैं कुछ देर नजारा देखने के इरादे से किनारे की मस्जिद के पास चाय की दुकान पर खड़ा हो गया। तभी....एक बाइक पर एक व्यक्ति और उसकी बुर्कानशीं पत्नी रेड लाइट पर रुके। पत्नी बोली रुक क्यों गए। पति ने कहा, रेड लाइट हो गई है। पत्नी विस्मय के साथ..... तो क्या देहाती भी तमीजदार हो गए हैं।
....महिला का यह संबोधन ही परिवर्तन की हवा का अहसास करा देता है। यह सच है कि अभी भी मालगोदाम तिराहे पर रेड लाइट देखकर बाइक रोकने की स्वतः इच्छा नहीं है, लेकिन व्यवस्था बनाने के लिए बल का अंकुश भी जरूरी होता है। महिला की टिप्पणी से पता चलता है अलीगढ़ की जीवन शैली के बारे में सामान्य सोच क्या है। उम्मीद है कि यह जल्द ही बदलेगी

Tuesday, September 29, 2009


... खुमार की याद में

आज बहुत दिनों बाद पता नहीं क्यों खुमार की याद आ रही है।
अपनी तरह के अकेले शायर विद्रोह को भी बहुत रोमानियत के साथ बयां किया। ...थक के पेड़ की छांव में बैठा हुआ एक मुसाफिर..चंद लम्हों के आराम के बाद खुद को जिस तरह की स्फूर्ति खुद के अंदर अनुभव करता है। कुछ वैसा ही अहसास खुमार को सुनने के बाद महसूस होता है। ..इसी तरह के अहसासों के खानदान की उनकी यह गजल आपके पेशे नजर है।

न हारा है इश्क, न दुनिया थकी है
दिया जल रहा है, हवा चल रही है

सकूं ही सकूं है, खुशी ही खुशी है
तेरा गम सलामत, मुझे क्या कमी है

चरागों के बदले मकां जल रहे हैं
नया है जमाना नई रोशनी है

अरे ओ जफाओं पे चुप रहने वाले
खामोशी जफाओं की ताईद भी है

मेरे रहबर मुझे गुमराह कर दे
सुना है मंजिल करीब आ रही है

खुमार इक बलानोश तू और तौबा
तुझे जाहिदों की नजर लग गई है

Monday, September 28, 2009


भगत सिंह का भविष्य

..हमारे एक विचित्र मित्र हैं कवि हरीश बेताब। जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे तो उनके संचार मंत्री सुखराम आय से अधिक संपत्ति के एक मामले में फंस गए। उस समय उन्होंने एक कविता लिखी थी
..कल का भगत सिंह बैठा भूखे ही दिन काट रहा है
...राजनीति के सुखरामों का कुत्ता रबड़ी चाट रहा है

पंक्तियां आज भी प्रासंगिक हैं। सुखरामों के नाम भले ही बदल गए हों, लेकिन उनका कार्य और हैसियत में कोई बदलाव नहीं आया है।

इसी तरह माफिया डॉन बबलू श्रीवास्तव ने एक किताब लिखी, जिसका नाम था अधूरा ख्वाब। इस किताब की जिल्द के सबसे पिछले हिस्से पर लिखा था कि इस देश के अंदर भगत सिंह को फांसी लगती है और महात्मा गांधी मौन रहते हैं।
...सवाल उठाता है कि भगत सिंह एक नाम न होकर विचार, आंदोलन और एक किरदार है। तो क्या यह राष्ट्रवादी आंदोलन के समय उपेक्षित किया गया था। क्या आज भी यह राजनीति के सुखरामों से कमतर ही रहा है। क्या आज के सिस्टम में भगत सिंह और उसके विचारों की कोई जगह नहीं है। क्या आजाद देश के अंदर देश के लिए खुद को देश भक्त साबित कर पाना बहुत मुशकिल है।

...और क्या यह सवाल अनुत्तरित ही रहेंगे। अगर ऐसा है तो क्या होगा भगत सिंह का भविष्य।

Friday, September 25, 2009

....आगरा में मुगल बादशाह अकबर का मकबरा। अजीमो शान शहंशाह जहां पर गहरी नींद सोया हुआ है। वहां पर रोजाना सैकड़ों लोग आते हैं। पहली बार देखने पर उसकी बुलंदी से ही बादशाह अकबर के बुलंद रुतबे का अहसास हो जाता है। पत्थरों पर लिखी इबारत से पता चलता है कि इसके निमार्ण की रूपरेखा अकबर ने अपने जीवनकाल में ही बनाई थी। अंदर जाने पर उसकी और भी कई खासियतें सामने आतीं हैं। मकबरा, जहां पर मरने के बाद किसी शख्स को दफन किया जाता है। ....अकबर महान जिसकी जिंदगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा जंग के मैदान में बीता, उसके मकबरे पर मोहब्त की निशानियां भी मंडराती दिखाई दीं। बादशाह के मकबरे पर आने वाले लोगों में अधिकांश वह प्रेमी युगल थे, जो शहर की भीड़भा़ड़ से दूर एकांत की तलाश में यहां पर आते हैं। इन प्रेमी युगलों को शायद अकबर के जीवन काल और उसके शासन की गतिविधियों का अंदाजा न हो, लेकिन इतना जरूर मालूम है कि यह मकबरा अकबर का है और वह यहां पर सकून के साथ अपना वक्त बिता सकते हैं। कितनी अजीब बात है कि ताकत और फौजी कूबत के दम पर अपना साम्रज्य खड़ा करने वाले एक बादशाह की मजार पर जंग के पैरोकार नहीं बल्कि वहां पर मोहब्त के सिपहसालार सजदा करने आते हैं।

Tuesday, June 16, 2009

अलीगढ़ के होटल मेलरोज इन में एक प्रमुख समाचार पत्र समूह की ओर से कुपोषण को दूर करने के उपायों पर चर्चा की गई। शहर के सभी गणमान्य लोग इस बात के लिए माथा पच्ची करने जुटे कि कुपोषण की समस्या से कैसे निपटा जा सकता है। गौरतलब है कि होटल शहर का सबसे शानदार होटल था। वेन्यू से वहां के मीन्यू का अंदाजा लगाया जा सकता है। आयोजन के विषय में जानकारी लगने के बाद सिर्फ दुष्यंत कुमार की यही पंक्तियां जहन में आईं----
न हो कमीज तो पांवों से पेट ढक लेगें,
यह लोग कितने मुनासिब है इस सफर के लिए

Sunday, June 14, 2009

उठ कर जब तेरे आगोश से चलते हैं

उठ कर जब तेरे आगोश से चलते हैं
कैसे-कैसे ख्याल दिल में मचलते हैं
जैसे कोई मैयकश मैयकशी में बहकर
जैसे कोई बादल किसी जगह ठहरकर
जैसे कोई शायर गजल नई कहकर
और दीवाने तेरा ख्याल करते हैं
उठकर जब तेरे आगोश से चलते हैं