Tuesday, September 29, 2009
... खुमार की याद में
आज बहुत दिनों बाद पता नहीं क्यों खुमार की याद आ रही है।
अपनी तरह के अकेले शायर विद्रोह को भी बहुत रोमानियत के साथ बयां किया। ...थक के पेड़ की छांव में बैठा हुआ एक मुसाफिर..चंद लम्हों के आराम के बाद खुद को जिस तरह की स्फूर्ति खुद के अंदर अनुभव करता है। कुछ वैसा ही अहसास खुमार को सुनने के बाद महसूस होता है। ..इसी तरह के अहसासों के खानदान की उनकी यह गजल आपके पेशे नजर है।
न हारा है इश्क, न दुनिया थकी है
दिया जल रहा है, हवा चल रही है
सकूं ही सकूं है, खुशी ही खुशी है
तेरा गम सलामत, मुझे क्या कमी है
चरागों के बदले मकां जल रहे हैं
नया है जमाना नई रोशनी है
अरे ओ जफाओं पे चुप रहने वाले
खामोशी जफाओं की ताईद भी है
मेरे रहबर मुझे गुमराह कर दे
सुना है मंजिल करीब आ रही है
खुमार इक बलानोश तू और तौबा
तुझे जाहिदों की नजर लग गई है
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