Tuesday, September 29, 2009


... खुमार की याद में

आज बहुत दिनों बाद पता नहीं क्यों खुमार की याद आ रही है।
अपनी तरह के अकेले शायर विद्रोह को भी बहुत रोमानियत के साथ बयां किया। ...थक के पेड़ की छांव में बैठा हुआ एक मुसाफिर..चंद लम्हों के आराम के बाद खुद को जिस तरह की स्फूर्ति खुद के अंदर अनुभव करता है। कुछ वैसा ही अहसास खुमार को सुनने के बाद महसूस होता है। ..इसी तरह के अहसासों के खानदान की उनकी यह गजल आपके पेशे नजर है।

न हारा है इश्क, न दुनिया थकी है
दिया जल रहा है, हवा चल रही है

सकूं ही सकूं है, खुशी ही खुशी है
तेरा गम सलामत, मुझे क्या कमी है

चरागों के बदले मकां जल रहे हैं
नया है जमाना नई रोशनी है

अरे ओ जफाओं पे चुप रहने वाले
खामोशी जफाओं की ताईद भी है

मेरे रहबर मुझे गुमराह कर दे
सुना है मंजिल करीब आ रही है

खुमार इक बलानोश तू और तौबा
तुझे जाहिदों की नजर लग गई है

Monday, September 28, 2009


भगत सिंह का भविष्य

..हमारे एक विचित्र मित्र हैं कवि हरीश बेताब। जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे तो उनके संचार मंत्री सुखराम आय से अधिक संपत्ति के एक मामले में फंस गए। उस समय उन्होंने एक कविता लिखी थी
..कल का भगत सिंह बैठा भूखे ही दिन काट रहा है
...राजनीति के सुखरामों का कुत्ता रबड़ी चाट रहा है

पंक्तियां आज भी प्रासंगिक हैं। सुखरामों के नाम भले ही बदल गए हों, लेकिन उनका कार्य और हैसियत में कोई बदलाव नहीं आया है।

इसी तरह माफिया डॉन बबलू श्रीवास्तव ने एक किताब लिखी, जिसका नाम था अधूरा ख्वाब। इस किताब की जिल्द के सबसे पिछले हिस्से पर लिखा था कि इस देश के अंदर भगत सिंह को फांसी लगती है और महात्मा गांधी मौन रहते हैं।
...सवाल उठाता है कि भगत सिंह एक नाम न होकर विचार, आंदोलन और एक किरदार है। तो क्या यह राष्ट्रवादी आंदोलन के समय उपेक्षित किया गया था। क्या आज भी यह राजनीति के सुखरामों से कमतर ही रहा है। क्या आज के सिस्टम में भगत सिंह और उसके विचारों की कोई जगह नहीं है। क्या आजाद देश के अंदर देश के लिए खुद को देश भक्त साबित कर पाना बहुत मुशकिल है।

...और क्या यह सवाल अनुत्तरित ही रहेंगे। अगर ऐसा है तो क्या होगा भगत सिंह का भविष्य।

Friday, September 25, 2009

....आगरा में मुगल बादशाह अकबर का मकबरा। अजीमो शान शहंशाह जहां पर गहरी नींद सोया हुआ है। वहां पर रोजाना सैकड़ों लोग आते हैं। पहली बार देखने पर उसकी बुलंदी से ही बादशाह अकबर के बुलंद रुतबे का अहसास हो जाता है। पत्थरों पर लिखी इबारत से पता चलता है कि इसके निमार्ण की रूपरेखा अकबर ने अपने जीवनकाल में ही बनाई थी। अंदर जाने पर उसकी और भी कई खासियतें सामने आतीं हैं। मकबरा, जहां पर मरने के बाद किसी शख्स को दफन किया जाता है। ....अकबर महान जिसकी जिंदगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा जंग के मैदान में बीता, उसके मकबरे पर मोहब्त की निशानियां भी मंडराती दिखाई दीं। बादशाह के मकबरे पर आने वाले लोगों में अधिकांश वह प्रेमी युगल थे, जो शहर की भीड़भा़ड़ से दूर एकांत की तलाश में यहां पर आते हैं। इन प्रेमी युगलों को शायद अकबर के जीवन काल और उसके शासन की गतिविधियों का अंदाजा न हो, लेकिन इतना जरूर मालूम है कि यह मकबरा अकबर का है और वह यहां पर सकून के साथ अपना वक्त बिता सकते हैं। कितनी अजीब बात है कि ताकत और फौजी कूबत के दम पर अपना साम्रज्य खड़ा करने वाले एक बादशाह की मजार पर जंग के पैरोकार नहीं बल्कि वहां पर मोहब्त के सिपहसालार सजदा करने आते हैं।