Tuesday, February 2, 2010




गंदगी में जिंदगी और अखबार में खबर


...बात तब की है जब मैं अमर उजाला अलीगढ़ में काम करता था। घर के पास ही एक पोखर थी, जिसे मोहल्ले के लोग कूड़ेदान की तरह इस्तेमाल कर लेते थे। इस कारण पोखर किनारे एक हिस्से पर कूड़े का ढेर लगा रहता था। लोगों की बताई बातों के आधार पर मेरे मन में कहीं यह धारणा बैठी हुई थी कि कूड़े में प्लास्टिक आदि बीनने वाले लोग चोरी चकारी कर लेते हैं। दिन में यह मकानों की टोह लेते हैं।
मई जून की एक वीरान दोपहर में उसी कू़ड़े के ढेर पर तीन किशोर प्लास्टिक कचरा बीन कर अपने बड़े-बड़े थैलों में डाल रहे थे। मैं घर पर दोपहर का खाना खाने आया था। मन में बनी धारणा के अनुरूप और मकान की सुरक्षा का ख्याल करते हुए हिकारत भरी नजरों से उन कूड़ा बीनने वाले लड़कों को देखा। भद्दे लहजे में उन्हें फटकारते हुए एक सांस में दो तीन बार वहां से तुरन्त जाने के लिए कह दिया।...इसके एवज में एक लड़के ने बड़े बेहद शिष्टता से (जैसी किसी कुलीन परिवार में देखने को मिलती है)कहा....नाराज न हों भाई साहब हम जा रहे हैं। इस लहजे ने मुझे सोचने को थोड़ा मजबूर किया। एक डेढ़ मिनट कशमकश में गुजारने के बाद मैंने थोड़ा दौड़कर उसे रोका। थोड़ा डरते हुए वह रुक गया और प्रश्नवाचक निगाहों से मेरी और देखने लगा। मैनें सहज माहौल बनाने और उसका विश्वास जीतने की कोशिश करते हुए पूछा...क्या करते हो। उसने कहा..कुछ नहीं बस यही करते हैं। खैर..पांच मिनट में मैने स्थित सहज कर ली। इसके बाद जो उसने बताया उससे मेरे मन की धारणा हमेशा के लिए बदल गई।
लब्बो लुबाब यह था... कूड़ा बीनने वाले 16 वर्षीय जगन के परिवार में सात लोग थे। सभी कूड़े के ढेरों से प्लास्टिक बीनने का काम करते थे। डेढ़ रुपये प्रति किलो की दर से वह इसे अलीगढ़ के भुजपुरा में एक गोदाम पर दे देते थे। गोदाम से यह प्लास्टिक ट्रकों में लद कर गाजियाबाद और फरीदाबाद फैक्ट्रियों में जाती थी। वहां पर कचरे की श्रेणीवद्ध छंटाई होती थी। फैक्ट्रियों में इसके छोटे-छोटे दाने बनते थे। जो पूरे देश में सप्लाई होते थे। इन्हीं दानों से फिर से प्लास्टिक के नए आयटम बनते थे।
....जगन ने बताया था कि एक व्यक्ति दिन में 45 से 60 रुपये तक का काम कर लेता है।(यह मूल्य सन 2004 का है)इस प्रकार
परिवार के सातों सदस्य महीने में 10-12 हजार रुपये तक कमा लेते हैं। सभी के लिए खाना हो जाता है। तंग बस्ती में ही सही सम्मान से रहना हो जाता है। मोहल्ले के ही एक स्कूल में जाता था इसलिए जगन थोड़ा पढ़ना-लिखना भी सीख गया था।
...गंदगी में जिंदगी तलाशने की जगन और उसके परिवार की इस गाथा को मैंने अपनी स्टोरी का विषय बनाया । इसके लिए उस समय अमर उजाला के संपादकीय प्रभारी श्री हेमंत लवानियां जी ने मेरी पीठ थपथपाई। यह मेरे लिए एक बहुत बड़ा पुरस्कार बतौर था। इस खबर के कुछ ही दिनों बाद शहर के तस्वीर महल चौराहे पर एक किशोर भिखारी अपने हाथ पैर पंगु करने का उपक्रम करते हुए पैसा मांगने आया। ....मुझे जगन तस्वीर नजर आई। दिल से आवाज आई दीपक शर्मा अगर तुमने इसे पैसा दे दिया तो जगन जैसे स्वाभिमानी और अत्मसम्मानी लोगों से नजरें कैसे मिलाओगे। तब से मैंने किसी को भी भीख न देने का फैसला किया। इस पर मैं आज तक कायम हूं। बाद में मैंने कई खबरें और लिखीं जिसमें उन लोगों का जिक्र था जो 80 प्रतिशत तक विकलांग और नेत्रहीन होने पर भी प्रोविजन स्टोर या अन्य काम करके स्वावलंबी जीवन बिता रहे थे। ..मुझे जगन जैसों का आत्म सम्मान उन लोगों की सम्पन्नता से बढ़ा लगता है जिनके ऐश्वर्य की इमारत गलत कामों की बुनियाद पर रखी है।

दीपक शर्मा-पत्रकार
098370-17406

2 comments:

Anonymous said...

very good things your's life. eak Ghatana change kara sakati hai kisee ka man, sheali, dincharya.

kedarnath hindustan aligarh

pls
camment sa verifaction word hataway

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